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Thursday, September 15, 2011

एकाकी सा एक पेड हूँ

मै तो बस पहाड़ी पर खड़ा
एकाकी सा एक पेड हूँ

नितांत अकेला सा
खुद से बात करता हुआ
तुम्हारी हर याद को
कोटरों मे जमा करता हुआ
राह देखते हुए मन में
तुम्हारे आने की आस  लिए
तुम आओगी मेरे पास
अटल यही एक विश्वाश लिए

तुम्हे ये भी पता है
मेरे पास कुछ नहीं है
मेरा कहने के लिए
तुम्हारे इन्तेजार के सिवा
शाखाओं को बाँहों की तरह
फैला कर खड़ा हूँ,
इनकी चाहत कुछ भी नहीं है
तुम्हरे प्यार के सिवा


और वो
दूर क्षितिज में डूबता सूरज
मुझे पल भर के लिए
लम्बी परछाई से
तुम तक पहुंचा कर
ढेरो खुशिया दे जाता है
और डूबने के बाद फिर
सारी रात सांझ का सुरज 
तुम्हारी याद से रुलाता है


रात होते ही
मै और अकेला हो जाता हूँ
हर रात हवाओं के साथ मिल कर
मै एक नया ही संगीत बनाता हूँ

वो संगीत सिर्फ तुम्हारा है
उस पर मेरा
कोई भी अधिकार नहीं है
तुम ही मेरा जीवन हो
तुम्हारे सिवा
मुझे किसी से भी प्यार नहीं है

मै तो बस पहाड़ी पर खड़ा
एकाकी सा एक पेड हूँ

2 comments:

दिगम्बर नासवा said...

इतनी तपस्या के बाद जरूर उनका मन पसीजेगा ... मुलाकार होगी .. लाजवाब कविता ...

संजय भास्‍कर said...

सार्थकता का सन्देश देती सुन्दर और कोमल कविता

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