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Sunday, January 18, 2015

पिता

पिता
खुद धुप में खडे हो,
संतान के लिए छाँव बनाते हैं |
पिता
सन्तान की खुशियों हेतु
खुद की खुशियाँ भूल जाते हैं |
पिता
खुद की थकान को नकार
बच्चे को कंधे पर घुमाते हैं |
पिता
संतान की जीत के लिए
ख़ुशी से खुद को हार जाते हैं |
पिता
स्वयं भूखे रह कर भी
बच्चे को पकवान खिलाते हैं
पिता
बच्चे की नई कमीज हेतु
पुराने स्वेटर में एक और सर्दी बिताते हैं|
पिता
बच्चे की जरूरी, गैर जरूरी जरूरतों हेतु
तडके निकलते और देर से घर आते हैं |

ऐसे जाने कितने ही त्याग है
जो बिना बोले ही पिता करते जाते हैं |
और इन त्यागों को हम तब
समझते हैं जब पिता को खो देते हैं
या खुद पिता बन जाते हैं |


So, just go and express your care, love and respect for you father while you have him with you.

I Love you Babu.. and I miss you a lot

Saturday, January 17, 2015

फिर से पिता को पाने का दिल करता है

हर याद, हर मंजर ऐसे लगता है
जैसे बिलकुल कल ही की बात है
पर अब इस दिल में और कुछ नहीं
बस पिता को पाने की फरियाद है

कहने को कितना कुछ है मन में
कितना कहूं, कितना छुपा लूं
और कुछ चाहत नहीं है मेरी
सिर्फ पिता के सीने से लग जाने का मन करता है|
फिर पिता को फिर से पाने का मन करता है |

जब बचपन में गलतियाँ करता था
तो पिता जी गलतियाँ बताया करते थे
कभी प्यार से कभी डांट से
सही गलत समझाया करते थे

आज भी वैसे ही
छोटी छोटी गलतियाँ दोहराने का मन करता है |
आज भी वैसे ही
फिर पिता से डांट खाने का मन करता है |

गाँव की धुल भरी सडको पर खेल कर
या होली के रंग जब दोस्तों उड़ाते थे
तो कभी तालाब पर कभी नल पर
पिता जी ही मल मल कर नहलाते थे  

आज भी वैसे ही
खुद को गन्दा हो जाने का मन करता है |
आज भी वैसे ही
फिर पिता के हांथो नहाने का मन करता है |

जब बचपन में माँ पिता के पैर दबाती थी
तब शरारत मुझे भी तो बहुत आती थी
लिहाफ के नीचे पिता के पैरो पर पैर रख
माँ से खुद शैतानी के अपने पैर दबवाता था,

आज भी वैसे ही
पिता पैरों पर पैर रख, लेट जाने का मन करता है |
आज भी वैसे ही
पिता के बदले खुद के पैर दबवाने का मन करता है

जब नाकाम होता था कभी कही भी
तो पिता ही थे जो मेरा हौसला बढ़ाते थे
जब सफलता मिलती मुझे कभी भी
वो जी भर के अपनी खुशियाँ दिखाते थे
हर शख्श को मिठाइयाँ खिलाते

आज भी वैसे ही
पिता को उपलब्धियां बताने का मन करता है |
आज भी वैसे ही
पिता से मिठाइयाँ बंटवाने का मन करता है |

कहने को कितना कुछ है मन में
कितना कहूं, कितना छुपा लूं
और कुछ चाहत नहीं है मेरी
सिर्फ पिता के सीने से लग जाने का मन करता है|

इतना होते हुए भी सब बेकार ही है
इस सब कुछ को खो दूं तो भी रंज नहीं

सिर्फ पिता को फिर से पाने का मन करता है |
और कुछ चाहते नहीं है मेरी
सिर्फ फिर से पिता के सीने से लग जाने का मन करता है |

 
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