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Monday, June 27, 2011

क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे

क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे

जब हम कोलेज के पीरियड्स को कैंटीन मे गुजारा करते थे
एक दुसरे को अजीब नामो से पुकारा करते थे

खाली बटुए की दलीलों को देकर हमेशा ही दोस्तों से
चाय और समोसो का बिल भरवाया करते थे

और असाइनमेंट को पूरा करने के समय
उस कैंटीन को ही लाइब्रेरी बनाया करते थे

क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे

उन कालेज के दिनों मे, लड़कियाँ भी एक अजूबा होती थी
दोस्तों के बीच पीली वाली तेरी और नीली वाली मेरी होती थी

वो लड़कियाँ भी बड़े प्यार से हमें बुलाती थी
और उस प्यार की आड मे, अपने कई काम करवाती थी

लड़कियों से की उन दो पल की बातो को हम
दोस्तों मे बढ़ा चढ़ा कर सुनाया करते थे

क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे

उन्ही कालेज के दिनों मे हमको पहला सच्चा प्यार हुआ था
हमारे दिल के कमरे पर, पहले पहल किसी का अधिकार हुआ था

उन्हों दिनों मे पहली बार जीवन के सपने हमने गढे थे
कल्पना की ऊंची उड़ानों मे, हम जाने कितने दूर तक उड़े थे

उसकी एक मुस्कान देख कर,
हम हर रोम रोम से आह्लादित हों जाया करते थे

क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे

मित्रों की टोली के संग जब तब घूमने चले जाते थे
किसी एक के लिए, सब लड़ने मरने को तत्पर हों जाते थे

दोस्तों के हर रिश्ते को अपना रिश्ता बनाते थे
उन रिश्ते की खातीर, अपनी जान भी लुटाने को तैयार हों जाते थे

और हर छुट्टी के दिन टिफिन के खाने से ऊब कर बिना बताए ही
शहर मे ही रहने वाले दोस्तों के घर पहुँच जाया करते थे

छोटी बहना को चोटी पकड़ सताया करते थे, दुलराया करते थे
और माँ के हाथो का खाना, छक कर के खाया करते थे


क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे

क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे


Sunday, June 26, 2011

यादो के आशियाने नहीं मिटते

वो नमकीन बूँदे,
जो पलकों से रुखसार पर
भीगी रुत की दाह से आ जाती है
वो दाह
जाने कब तक

जाने कब तक
यूँ ही जलाती रहेगी
आँखों से मेघ बरसते रहेंगे
कुछ बूंदे कही से ढलकती रहेंगी
वो पुरानी छत रिसती रहेगी
जिसमे से यादो की बूंदे
टिप टिप कर के टपकती रहेंगी

और
जमाने की ठोकरे,
कड़वाहटों का बवंडर
जुदाई की सच्चाई भी
यादो की नीव को
नही हिला पाएगी.

वैसे भी,
वक्त के सैलाब मे
यादो के आशियानें,
कहाँ मिटा करते हैं?

Thursday, June 23, 2011

सरकारी दफ्तर, दान-दक्षिणा और हमारी आजादी

सरकारी दफ्तर के एक बाबू से हम बोल

बाबु जी हमारी फाइल आगे कब बढाओगे
वो बाबु जी बोले, जब तुम थोडा प्रसाद चढाओगे

हम बोले प्रसाद तो इश्वर को चढाते हैं
आप तो मनुष्यों की ही श्रेणी मे आते हैं

वो बोले आप का कहना तो सच्चा है
लेकिन प्रसाद हमें भी मिल जाए तो अच्छा है

हम बोले हम अब जब मंदिर जायेंगे
तो थोडा प्रसाद आपके लिए भी ले आयेंगे

वो बोले लगते तो आप ग्यानी है
लेकिन सरकारी दफ्तर के काम से आप अज्ञानी है

यहाँ प्रसाद और दक्षिणा का मतलब
हम सब को मिलने वाली रिश्वत से होता है

हम बोले तो

क्या आप, आप के काम की भी रिश्वत खायेंगे
वो बोले आप रिश्वत दोगे तभी फ़ाइल आगे बढायेंगे

गर नहीं दी रिश्वत तो आप सिर्फ धक्के खाओगे
और आप के काम को कभी पूरा नहीं कार पाओगे

हम लाचारी से बोले यहाँ तो कैमरे लगे हुए हैं
क्या आप उन कैमरों के सामने रिश्वत ले पाओगे

वो बोले ये दक्षिणा तो आप
फ़ाइल के बीच मे रख कर ही लायेंगे

हम बोले उन पैसो को आप इन कैमरों के सामने
फ़ाइल से अपनी जेबो तक कैसे पहुंचायेंगे

वो साहब बोले, ये जो इतने चौड़े खम्बे है
ये सब और किस दिन काम आयेंगे

फिर वो घुड़ककर बोले, अब आप हमारा और वक्त ना खाईये
जाइये जा कर, इस फ़ाइल मे दक्षिणा रख कर लाइये

ये सब सुन कर, हम खुद को असाहय पा रहे थे
और बापू तस्वीर बने, दीवार पर चिपके सिर्फ मुस्कुरा रहे थे

हमारी इमानदारी और मेहनत को नोटों की शक्ल मे बदल कर
हमारी ईमानदार जेब से, एक बैमान की जेब मे जा रहे थे

और हम हमारी इस हालात पर आंसू बहा रहे थे
क्या हम सच मे आजाद है, यही प्रश्न दोहरा रहे थे

क्या हम सच मे आजाद्द है, यही प्रश्न दोहरा रहे थे

Wednesday, June 22, 2011

आजादी की इमारत को ना बिखरने दो


बुनियाद धंसने लगी हैं,
दीवारें हैं बेखबर सोई हुई,
नियामकों को खबर नहीं,
के जंग लगने लगा है
अब तो भरोसे
की इस इमारत मे हर और.
पार करने लगे हैं
हुकुमरान अपना दायरा भी
जगना होगा उनको
ऐ शहर के बाशिंदों
इससे पहले की
शहर श्मशान और
देश कब्रिस्तान मे बदले.
जगाना होगा नियामकों को,
उनकी उस गहरी नींद से,
जो उन्होंने ओढ़ रखी है,
सत्ता की आंधी मे
अंधे होकर,
और जो उन्हें
नहीं जगाया गया आज
तो इस नींद की अलसाहट
मे बिखर जायेगी
आजादी वो की इमारत
जिसके गारे को सींचा है
खून से अपने, कई जानो ने,
अपना सर्वस्व नयौछावर करते हुए.

Thursday, June 16, 2011

अनुत्तरित सवाल


ना मंजिले कोई राह बनाती हैं,
ना कोई भी याद, रास्ता दिखाती है
उस पुरानी सदरी मे
तो अब धुल की परते जम चुकी हैं
और वो अनुभव की गठरी
तो कभी की खुल चुकी है
जिसमे जमा सारा अनुभव
जा चुकी आंधी की तरह
यहाँ से कही दूर जा चूका है
पीछे कुछ है तो
सिर्फ धुल
जिससे बाल सने हुए हैं
दांतों के बीच की रेत
आँखों से बहता हुआ पानी
और एक सवाल
जिसका जवाब
न मेरे पास है
न तुम्हारे पास
वैसे भी कुछ सवाल
अनुत्तरित ही अच्छे होते हैं
 
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