बुनियाद धंसने लगी हैं,
दीवारें हैं बेखबर सोई हुई,
नियामकों को खबर नहीं,
के जंग लगने लगा है
अब तो भरोसे
की इस इमारत मे हर और.
पार करने लगे हैं
हुकुमरान अपना दायरा भी
जगना होगा उनको
ऐ शहर के बाशिंदों
इससे पहले की
शहर श्मशान और
देश कब्रिस्तान मे बदले.
जगाना होगा नियामकों को,
उनकी उस गहरी नींद से,
जो उन्होंने ओढ़ रखी है,
सत्ता की आंधी मे
अंधे होकर,
और जो उन्हें
नहीं जगाया गया आज
तो इस नींद की अलसाहट
मे बिखर जायेगी
आजादी वो की इमारत
जिसके गारे को सींचा है
खून से अपने, कई जानो ने,
अपना सर्वस्व नयौछावर करते हुए.
2 comments:
सुन्दर आह्वान्।
आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्वागत है
http://tetalaa.blogspot.com/
बहुत सुन्दर और सशक्त रचना!
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