कभी कभी मन करता है
फिर से मुह फुला कर रूठूं
और रूठ कर बैठ जाऊं
दरवाजे की चौखट पर
जैसे कभी बचपन मे
बैठा करता था
और फिर चौखट पर बैठ
मुह फुला कर
नखरे दिखा कर
कहूं
किसी को मेरी चिंता नहीं है
कोई मुझ से प्यार नहीं करता
और दिल मे ये चाहत हो
के अभी सब मुझे मनाएंगे
मेरे नखरे उठाएंगे
बाबू प्यार से दुल्रायेंगे
कंधे पर बैठा कर घुमायेंगे
टॉफी और खिलौने दिलाएंगे
मेरे झूठे गुस्से पर
अम्मा मुस्काएगी
अपने आंचल में छुपाएगी
और फिर ख़ुशी के मारे
खुद ही रोने लग जायेगी
अपनी चिंता मुझे दिखायेगी
अपना प्यार मुझ पर लुटायेगी
पर अब मुह फुला कर बैठूं भी तो क्या
जानता हूँ
मेरे लिये ना पह्ले
जैसा प्यार है न दुलार है
और अब कोई नहीं कहेगा
मुझे तुम्हारी चिंता है,
मुझे तुम से प्यार है
2 comments:
'वाह' कुंदन जी, आप कैसे इतना सुंदर चित्रण कर लेते हैं! आप बचपन को जिस सहजता और सूक्ष्मता से व्याख्यायित कर लेते हैं वह वास्तव में सबके बस की बात नहीं ।
आप अब तक मुझ काव्य रसिक से कैसे बचे रहे … मुझे स्वयं की कूपमंडूकता पर ग्लानि हो रही है।
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