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Sunday, April 24, 2016

जन्नत का दीदार हुआ |

तूने जो छुआ होठो से, जन्नत का दीदार हुआ |
चाहा तुझे ना चाहे, पर फिर भी दिल बेक़रार हुआ|

कोशिश बहुत की हमने, अरमानो को दिल में दबाने की
पहले दबे पल भर को, फिर अरमानो का यलगार हुआ |

शिकायते हमारी तो, कम न थी नसीब से हो
पर तेरे छूने से, खुद की खुशनसीबी पर ऐतबार हुआ |


चाहां भी की दिल का हाल तुझे बता दे हम
पर डरते रहे, क्या होगा जो तेरा इनकार हुआ |


ज्यादा चाहते नहीं है, पर सारी खुशियाँ मेरी हो जाये
जो तू कह दे, "कुंदन" मुझ को भी तुझ से प्यार हुआ |

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-04-2016) को "मुक़द्दर से लड़ाई चाहता हूँ" (चर्चा अंक-2324) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

दिगम्बर नासवा said...

मस्त हैं सभी शेर आपके ..

Unknown said...

पहले दबे पलभर को फिर अरमानो का यलगार हुआ ।
शब्दों में भावनाओं को लिख रहे हो यार ।

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