क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
जब हम कोलेज के पीरियड्स को कैंटीन मे गुजारा करते थे
एक दुसरे को अजीब नामो से पुकारा करते थे
खाली बटुए की दलीलों को देकर हमेशा ही दोस्तों से
चाय और समोसो का बिल भरवाया करते थे
और असाइनमेंट को पूरा करने के समय
उस कैंटीन को ही लाइब्रेरी बनाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
उन कालेज के दिनों मे, लड़कियाँ भी एक अजूबा होती थी
दोस्तों के बीच पीली वाली तेरी और नीली वाली मेरी होती थी
वो लड़कियाँ भी बड़े प्यार से हमें बुलाती थी
और उस प्यार की आड मे, अपने कई काम करवाती थी
लड़कियों से की उन दो पल की बातो को हम
दोस्तों मे बढ़ा चढ़ा कर सुनाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
उन्ही कालेज के दिनों मे हमको पहला सच्चा प्यार हुआ था
हमारे दिल के कमरे पर, पहले पहल किसी का अधिकार हुआ था
उन्हों दिनों मे पहली बार जीवन के सपने हमने गढे थे
कल्पना की ऊंची उड़ानों मे, हम जाने कितने दूर तक उड़े थे
उसकी एक मुस्कान देख कर,
हम हर रोम रोम से आह्लादित हों जाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
मित्रों की टोली के संग जब तब घूमने चले जाते थे
किसी एक के लिए, सब लड़ने मरने को तत्पर हों जाते थे
दोस्तों के हर रिश्ते को अपना रिश्ता बनाते थे
उन रिश्ते की खातीर, अपनी जान भी लुटाने को तैयार हों जाते थे
और हर छुट्टी के दिन टिफिन के खाने से ऊब कर बिना बताए ही
शहर मे ही रहने वाले दोस्तों के घर पहुँच जाया करते थे
छोटी बहना को चोटी पकड़ सताया करते थे, दुलराया करते थे
और माँ के हाथो का खाना, छक कर के खाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
जब हम कोलेज के पीरियड्स को कैंटीन मे गुजारा करते थे
एक दुसरे को अजीब नामो से पुकारा करते थे
खाली बटुए की दलीलों को देकर हमेशा ही दोस्तों से
चाय और समोसो का बिल भरवाया करते थे
और असाइनमेंट को पूरा करने के समय
उस कैंटीन को ही लाइब्रेरी बनाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
उन कालेज के दिनों मे, लड़कियाँ भी एक अजूबा होती थी
दोस्तों के बीच पीली वाली तेरी और नीली वाली मेरी होती थी
वो लड़कियाँ भी बड़े प्यार से हमें बुलाती थी
और उस प्यार की आड मे, अपने कई काम करवाती थी
लड़कियों से की उन दो पल की बातो को हम
दोस्तों मे बढ़ा चढ़ा कर सुनाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
उन्ही कालेज के दिनों मे हमको पहला सच्चा प्यार हुआ था
हमारे दिल के कमरे पर, पहले पहल किसी का अधिकार हुआ था
उन्हों दिनों मे पहली बार जीवन के सपने हमने गढे थे
कल्पना की ऊंची उड़ानों मे, हम जाने कितने दूर तक उड़े थे
उसकी एक मुस्कान देख कर,
हम हर रोम रोम से आह्लादित हों जाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
मित्रों की टोली के संग जब तब घूमने चले जाते थे
किसी एक के लिए, सब लड़ने मरने को तत्पर हों जाते थे
दोस्तों के हर रिश्ते को अपना रिश्ता बनाते थे
उन रिश्ते की खातीर, अपनी जान भी लुटाने को तैयार हों जाते थे
और हर छुट्टी के दिन टिफिन के खाने से ऊब कर बिना बताए ही
शहर मे ही रहने वाले दोस्तों के घर पहुँच जाया करते थे
छोटी बहना को चोटी पकड़ सताया करते थे, दुलराया करते थे
और माँ के हाथो का खाना, छक कर के खाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
क्या दिन थे वो भी जब हम भी कोलेज जाया करते थे
2 comments:
यों कॉलेज और यूनीवर्सिटी मेरे लिए, बीते ज़माने की बातें हो चुकी हैं, पर उस ज़माने में भी अक्सर सभी के ये तास्सुरात हुआ करते थे :
"कॉलेज की ज़िन्दगी है हसीनों से छेड़ छाड़
लुत्फ़ आ जाता अगर ये इम्तहान न होता "
बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने, बधाई !
वाह बहुत सुन्दर रचना!
पढ़कर हमें भी पुराने दिन याद आ गये!
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